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जिंदगी का ताना बाना I Philosophy of My Life

Writer: NGO-Shiksha KrantiNGO-Shiksha Kranti

Ranjana Sharma

जब मैं परिवार और परिवेश के ताने-बाने में खोयी और उलझी महसूस करती हूँ, तो बैठ जाती हूँ

ढूंढने खुद को, पूछती हूँ भगवान से  "मेरे अंदर ये कैसा शोर है?"


मैं चाहती हूँ खुशियां जहां की समेट लूं अपने दामन में, 

बांट दूं उन्हें सबमें

देख सकूं सबके चेहरों पे  मुस्कान..


यह सब सुन मेरे भीतर से जवाब मिलता है ! 

"तुम चाहती कुछ और हो, कर कुछ और रही...."


सत्य भगवन ! मैंने भी सबको ऐसा ही कहा, लेकिन किसी ने मेरी एक न सुनी, उल्टा परम्पराओं की दुहाई दे कहा मुझसे "तूझे परिवार की परम्पराओं को निभाना है ! तुम एक लड़की हो तुम्हें अपना नहीं, दूसरों का घर बसाना है

तुम्हें अपनी नहीं, जो वो कहे

वही करते जाना है "


यह सुन सब मैं भीतर तक आक्रांत हुई थी और बोली थी "चलो मान लेती हूँ, इस परंपरा को ! लड़की हूँ, तो क्या हुआ ?

क्यों नहीं यह घर मेरा अपना है जन्म देने वालों को छोड़ना ही हकीकत है,

क्या दुल्हन बनना ही एक विकल्प  है ?


गर छुटना है एक दिन सबकुछ अपना,

तो क्यों न कुछ ऐसा कर जाऊं, बेगानी हो कर भी, क्यों न सबको अपना बनाऊँ ! 

नहीं कर सकती अगर मैं उम्र भर जन्म देने वालों की सेवा, 

तो क्यों न मैं घर से दूर समाज में सबकी सेवा करूं !


मैं समाज और समष्टि की सेवा के लिए स्वयं को समर्पित करूं ! फिर क्या किसी की दुल्हन बनूं या नहीं !


हां ! मैं लकीर की फकीर न बन पाउंगी

तोड़ सब बंधन, तोड़ सब जंज़ीरें

मैं अपनी अलग पहचान बनाऊंगी


दूर करदे जो मुझे मेरे अपनो से 

मुझे ऐसी परंपराओं की ज़रूरत नहीं

दूर कर दें मुझे जो मेरे सपनों से

ऐसी किसी की हिम्मत नहीं..


हे ईश्वर ! मैं जानती हूँ 

वो तुरंत मिल सकता नहीं, 

जो मैं पाना चाहती हूँ

मैं जी तोड़ मेहनत करूंगी, 

फिर भी अभीष्ट की प्राप्ति न हो

ऐसा संभव हो सकता नहीं !"

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