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न केवल सीखाना, बल्कि सीखना भी एक कला है ! Learning is an art as is teaching

प्रियंका शर्मा



सीखना और सीखाना दोनों ही मनुष्य के मानसिक एवं आत्मिक रूप से स्वाभाविक विकास में सहायक होते हैं ! जहां एक ओर कुछ सीखना मनुष्य के बौद्धिक स्तर को विस्तार देता है, वहीं दूसरी तरफ सीखाने की कला मनुष्य के संपूर्ण विकास में सहयता करती है !


ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही जीवन में सीखने और सीखाने की प्रक्रिया अनवरत जारी है । परन्तु समय के साथ साथ भौतिक विकास होने के कारण सीखने और सीखाने की कलायें भी दोषपूर्ण होती गई है ! इर्ष्या, लोभ, मोह और अहंकार जैसे मानसिक विकारों के कारण मनुष्य की चिंतनशीलता बेहद प्रभावित हुई है । ऐसा प्रतीत होता है मानो मनुष्य की सोच और समझ पर इन विकारों ने अपना कब्ज़ा कर लिया हो ! और मनुष्य के भीतर विराजमान विनय, धैर्य, शांति, संतोष, सदभावना और सदाचार जैसे गुणों को बंदी बना लिया हो! 


वर्तमान समय में यदि हम अपने चारों ओर परिवेश में एक व्यापक दृष्टि डाले, तो यह स्पष्ट नज़र आता है कि मनुष्य केवल सीखाना चाहता है, सीखना नही चाहता ! यदि कोई सीखाता या सीखता भी है तो उसका उद्देश्य अक्सर शुद्ध रूप से 'विसर्जित' और अर्जित ज्ञान से धनार्जन करना ही होता है ! यदि धन कमाना ज्ञान अर्जित करने के महान उद्देश्य का एक अंग मात्र हो, तो ठीक है। लेकिन यदि धन कमाना ही ज्ञान पाने का एकमात्र मकसद बन जाये, तो सीखाना और सीखना कला से दूर हो जाते हैं ! नतीजतन सीखाने और सीखने का कलात्मक पक्ष धीरे धीरे दम तोड़ने लगता है ! 


महाभारत काल में जब श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हैं तो अर्जुन नतमस्तक होकर कृतज्ञ भाव से ज्ञान को प्राप्त करते हैं ! बेशक वहां सीखाने और सीखने के पीछे एक महान उद्देश्य रहा हो, लेकिन वहां सिखाने वाला (श्रीकृष्ण) मनुष्यता के प्रति अपनी कृतव्य की कला को उत्तरोत्तर बनाये रखता है । और सीखने वाला (अर्जुन) अपनी सीखने की कला में अपने कृतज्ञ भाव में कोई कमी नहीं आने देता ! आज के आधुनिक युग में सीखाने की ऐसी कृतव्य-कला और सीखने की ऐसी कृतज्ञता शायद ही कहीं देखने को मिलती हो !


आज ज्ञान के मायने बदल चुके हैं ! कुछ पंक्तियों के जरिये ज्ञान के अव्यक्त रूप को व्यक्त करने की कोशिश करती हूं-


न वह ज्ञान जो धनार्जन के काम आये,

न वह ज्ञान जो इंसानियत भूला जाये !

न वह ज्ञान जो अहंकार जगाये,

न वह ज्ञान जो बेईमानी सिखाये !


ज्ञान जब आये- हर प्राणी के प्रति प्रेम सिखाये !

ज्ञान जब आये- मनुष्य में दया भाव जगाये !

ज्ञान जब आये- अहंकार का पर्दा हट जाये !

ज्ञान जब आये- तो हमें सही और गलत के बीच अंतर सिखला जाये !

समय की मांग है कि हम मनुष्य ज्ञान को लेकर अपना नजरिया बदलें ! हम न तो कृष्ण बन सकते हैं, और न ही अर्जुन ! लेकिन हम कृष्ण की 'कृतव्यता' और अर्जुन की 'कृतज्ञता' को अपने भीतर उतारने की कोशिश तो कर ही सकते हैं ! सीखाने और सीखने की कला ही तो जीवन जीने की कला है !


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