Sachin Thakur
शिक्षा एक ऐसी दिव्य शक्ति है जो हमारे माता-पिता द्वारा, हमारे गुरुजनो द्वारा तथा हमारे बजुरगो द्वारा हमें प्रदान की जाती है।
साधारणतया शिक्षा जीवन की बाल्यावस्था और किशोरावस्था में अपने बालरूप में हमारे जीवन में पदार्पण करती है ।
बाल्यावस्था में माता-पिता तथा बुज़ुर्गों द्वारा एक शिशु के लिए अनौपचारिक शिक्षा का प्रावधान किया जाता है, जो शिक्षा ग्रहण करने का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है । इस अवस्था में माता-पिता सबसे पहले बच्चे को माँ -पा बोलना सिखाते हैं। धीरे-धीरे शिशु पैरों पर लड़खड़ाने और खड़े होने के साथ-साथ तुतलाना शुरू करता है ! अतः उसे उसके माता -पिता द्वारा बोलना, खड़े होना ओर चलना सिखाया जाता है ।
माँ अपनी गोद में शिशु को स्नेहिल इशारों और ममतामयी भाव-भंगिमाओं द्वारा मुस्कुराना एवं हंसना सिखाती है ! साथ ही साथ समयानुसार पिता भी अपने उस बच्चे को अपने कंधों पे बैठा कर बाहर की दुनिया और प्रकृति से रुबरु कराता है। इस प्रकार घर के माता-पिता, बड़े-बुज़ुर्गों द्वारा एक शिशु को घर-परिवार तथा गांव-संसार को लेकर शिक्षित किया जाता है !
किशोरावस्था में बालक गुरुजनों द्वारा शिक्षित होता है। उसे घर से बाहर औपचारिक शिक्षा दी जाती है ! पाठशाला के नीति और नियमों से उसे अवगत करवाया जाता है। वहाँ उसे उसकी मातृ भाषा को सिखने, समझने, पढ़ने और बोलने की शिक्षा दी जाती है। यहाँ बालक साफ़-सुथरे रहने, उठने-बैठने, और सामाजिक व्यवहार के तौर तरीके सीखता है ! गुरुजन उसे सही और गलत से अवगत कराते है। समय आने पर गुरू बालक को भविष्य के लिए उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करते हैं। इसी शिक्षा से बालक अपने लक्ष्य को हासिल करता है। इस शिक्षा के माध्यम से बालक अपने भीतर समाज की, देश की, दुनिया की और प्रकृति की अनेक प्रक्रियाओं एवं परिघटनाओं को समझने और जानेने की क्षमता का विकास करता है।
माता-पिता,गुरुजनों तथा बुज़ुर्गों के बगैर शिक्षा अधुरी हैं।
-सचिन ठाकुर
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